Author name: TheGita Hindi

अध्याय १ शलोक १-गीता हिंदी

अध्याय  १ शलोक १   TheGita – Chapter 1 – Shloka 1 Shloka 1 धृतराष्ट्र बोले —– हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? ।। १ ।। Dhrtarashtra asked of Sanjaya: O SANJAYA, what did my warrior sons and those of Pandu do when they […]

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उम्मीद खो देना

उम्मीद खो देना अध्याय – 4 – श्लोक -11 हे अर्जुन ! जो भक्त्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उन को उसी प्रकार भजता हूँ ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं ।। ११ ।। अध्याय – 9 – श्लोक -22 जो अनन्य प्रेमी भक्क्त जन

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भेदभाव

भेदभाव अध्याय – 5 – श्लोक -18 वे ज्ञानी जन विद्या और विनय युक्त्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते हैं ।। १८ ।। अध्याय – 5 – श्लोक -19 जिनका मन सम भाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया

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अनियंत्रित मन

अनियंत्रित मन अध्याय – 6 – श्लोक -5 अपने द्वारा अपना संसार समुद्र से उद्बार करे और अपने को अधोगति में न डाले ; क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है ।। ५ ।। अध्याय – 6 – श्लोक -6 जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित

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अकेलापन

अकेलापन अध्याय – 6 – श्लोक -30 जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत* देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता ।। ३० अध्याय – 9 – श्लोक -29 मै सब भूतो मे

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निराशा

निराशा अध्याय – 2 – श्लोक -3 इसलिये हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती । हे परंतप ! ह्रदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो जा ।।३ ।। अध्याय – 2 – श्लोक -14 हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी, गर्मी और सुख-दुःख को देने

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प्रलोभन

प्रलोभन अध्याय – 2 – श्लोक -60 हे अर्जुन ! आसक्त्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्त्न करते हुए बुद्भिमान् पुरुष के मन को भी बलात्कार से हर लेती हैं ।। ६० ।। अध्याय – 2 – श्लोक -61 इसलिये साधक को चाहिये कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को

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आलस्य

आलस्य अध्याय – 3 – श्लोक -8 उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता ।। १८ ।। अध्याय – 3 – श्लोक

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प्रेरणाहीन

प्रेरणाहीन अध्याय – 11 – श्लोक -33 अतएव तू उठ ! यश प्राप्त कर और शत्रुओं को जीत कर धन-धान्य सम्पन्न राज्य को भोग । ये सब शूर वीर पहले ही से मेरे द्वारा मारे हुए हैं  । हे सव्यसाचिन् ! तू तो केवल निमित्त मात्र बन जा ।। ३३ ।। अध्याय – 18 –

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मृत्यु

मृत्यु अध्याय – 2 – श्लोक -13 जैसे जीवात्मा इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्बावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है ; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नही होता ।। १३ ।। अध्याय – 2 – श्लोक -20 यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और

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