आलस्य

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अध्याय – 3 – श्लोक -8

उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता ।। १८ ।।

अध्याय – 3 – श्लोक -20

जनकादि ज्ञानी जन भी आसक्त्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सिद्भि को प्राप्त हुए थे । इसलिये तथा लोक संग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है ।। २० ।।

अध्याय – 6 – श्लोक -16

हे अर्जुन ! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिल्कुल खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है ।। १६ ।।

अध्याय – 18 – श्लोक -39

जो सुख भोग काल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है —- वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न तामस कहा गया है ।। ३९ ।।

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