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अध्याय १८ शलोक ५७

अध्याय १८ शलोक  ५७ The Gita – Chapter 18 – Shloka 57 Shloka 57  सब कर्मों को मन से मुझ में अर्पण करके तथा सम बुद्भि रूप योग को अवलम्बन करके मेरे परायण और निरन्तर मुझ में चित्त वाला हो ।। ५७ ।। O Arjuna, if one truly offers and dedicates, with his heart, all […]

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अध्याय १८ शलोक ५६

अध्याय १८ शलोक  ५६ The Gita – Chapter 18 – Shloka 56 Shloka 56  मेरे परायण हुआ योगी तो सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है ।। ५६ ।। While engaged in whatever task a person has been prescribed, a person can task

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अध्याय १८ शलोक ५५

अध्याय १८ शलोक  ५५ The Gita – Chapter 18 – Shloka 55 Shloka 55  उस परा भक्त्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा का वैसा तत्त्व से जान लेता है ; तथा उस भक्त्ति से मुझको तत्त्व से जान कर तत्काल ही मुझ में प्रविष्ट हो जाता

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अध्याय १८ शलोक ५४

अध्याय १८ शलोक  ५४ The Gita – Chapter 18 – Shloka 54 Shloka 54  फिर वह सच्चिदानन्दधन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मन वाला योगी न तो किसी के लिये शोक करता है और न किसी की आकाँक्षा ही करता है । ऐसा समस्त प्राणियों में सम भाव वाला योगी मेरी परा भक्त्ति को

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अध्याय १८ शलोक ५१,५२,५३

अध्याय १८ शलोक  ५१,५२,५३ The Gita – Chapter 18 – Shloka 51,52,53 Shloka 51,52,53  विशुद्भ बुद्भि से युक्त्त तथा हल्का, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकान्त और शुद्भ देश का सेवन करने वाला ।। ५१ ।। सात्त्विक धारण शक्त्ति के द्वारा अन्त:करण और इन्द्रियों का संयम करके मन, वाणी

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अध्याय १८ शलोक  ५०

अध्याय १८ शलोक  ५० The Gita – Chapter 18 – Shloka 50 Shloka 50  जो कि ज्ञान योग की परानिष्ठा है, उस नैष्कमर्य सिद्भि को जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होता है, उस प्रकार को हे कुन्ती पुत्र ! तू संक्षेप में ही मुझसे समझ ।। ५० ।। Hear now, Arjuna,

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अध्याय १८ शलोक  ४९

अध्याय १८ शलोक  ४९ The Gita – Chapter 18 – Shloka 49 Shloka 49  सर्वत्र आसक्त्ति रहित बुद्भि वाला, स्पृहारहित और जीते हुए अन्त:करण वाला पुरुष सांख्य योग के द्वारा उस परम नैष्कमर्य  सिद्भि को प्राप्त होता है ।। ४९ ।। When a man’s ultimate goal is to achieve freedom from material bondage in this

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अध्याय १८ शलोक  ४८

अध्याय १८ शलोक  ४८ The Gita – Chapter 18 – Shloka 48 Shloka 48  अतएव हे कुन्ती पुत्र ! दोष युक्त्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिये ; क्योंकि धुऍ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त्त हैं ।। ४८ ।। A man should never foresake his

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अध्याय १८ शलोक  ४७

अध्याय १८ शलोक  ४७ The Gita – Chapter 18 – Shloka 47 Shloka 47  अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है ;क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता ।। ४७ ।। O Arjuna, it is far

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अध्याय १८ शलोक  ४६

अध्याय १८ शलोक  ४६ The Gita – Chapter 18 – Shloka 46 Shloka 46  जिस परमेश्वर से —— सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्भि को प्राप्त हो जाता है ।। ४६ ।। They all reach perfection

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