श्रीमद भगवद गीता हिन्दी

अध्याय १३ शलोक ७

अध्याय १३  शलोक ७ The Gita – Chapter 13 – Shloka 7 Shloka 7  श्रेष्टता के अभिमान का  अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्बा भक्त्ति सहित, गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्भि अन्त:करण की स्थिरता और मन इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह ।। […]

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अध्याय १३ शलोक ६

अध्याय १३  शलोक ६ The Gita – Chapter 13 – Shloka 6 Shloka 6  तथा इच्छा, द्बेष, सुख, दुःख, स्थूल देह का पिण्ड, चेतना और धृति —- इस प्रकार विकारों के सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया है ।। ६।। Desire, hatred, pleasure, pain, the body, intelligence, firmness; these along with their modifications have been

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अध्याय १३ शलोक ५

अध्याय १३  शलोक ५ The Gita – Chapter 13 – Shloka 5 Shloka 5  पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्भि और मूल प्रकृति भी तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पांच इन्र्दियों के विषय अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध — ।। ५ ।। The five great elements (earth, water, fire, air and ether), egoism, intellect and

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अध्याय १३ शलोक ४

अध्याय १३  शलोक ४ The Gita – Chapter 13 – Shloka 4 Shloka 4  यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और विविध वेद मन्त्रों द्वारा भी विभाग पूर्वक कहा गया है तथा भली भाँति निश्चय किये हुए युक्त्ति युक्त्त ब्रह्म सूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है

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अध्याय १३ शलोक ३

अध्याय १३  शलोक ३ The Gita – Chapter 13 – Shloka 3 Shloka 3  यह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है, और जिस कारण से जो हुआ है तथा क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाव वाला है —-वह सब संक्षेप में मुझसे सुन ।। ३ ।। What the field is, what it

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अध्याय १३ शलोक २

अध्याय १३  शलोक २ The Gita – Chapter 13 – Shloka 2 Shloka 2  हे अर्जुन ! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा भी मुझे ही जान और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का अर्थात् विकार सहित प्रकृति का और पुरुष का जो तत्व से जानना है, वह ज्ञान है —–ऐसा मेरा मत है ।। २ ।। And you

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अध्याय १३  शलोक १

अध्याय १३  शलोक १ The Gita – Chapter 13 – Shloka 1 Shloka 1  श्रीभगवान् बोले —–हे अर्जुन ! यह शरीर ‘क्षेत्र’ इस नाम से कहा जाता है और इस को जो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ इस नाम से उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानी जन कहते हैं ।। १ ।। The Blessed Lord said: This

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अध्याय १२ शलोक २०

अध्याय १२ शलोक २० The Gita – Chapter 12 – Shloka 20 Shloka 20  परन्तु जो श्रद्युक्त्त पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्म मय अमृत को निष्काम प्रेम भाव से सेवन करते हैं, वे भक्त्त मुझको अतिशय प्रिय हैं ।। २० ।। They who follow this immortal law as described above, endowed

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अध्याय १२ शलोक १९

अध्याय १२ शलोक १९ The Gita – Chapter 12 – Shloka 19 Shloka 19  जो निन्दा स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट हैं और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित हैं —–वह स्थिर बुद्भि भक्तिमान् पुरुष मुझको प्रिय

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अध्याय १२ शलोक १८

अध्याय १२ शलोक १८ The Gita – Chapter 12 – Shloka 18 Shloka 18  जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सरदी, गरमी और सुख-दुःखादि द्बन्द्बों में सम हैं और आसक्ति से रहित हैं ।। १८ ।। He who is the same to enemy and friend and also in honour and dishonour, in

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