श्रीमद भगवद गीता हिन्दी

अध्याय १३ शलोक २७

अध्याय १३ शलोक २७ The Gita – Chapter 13 – Shloka 27 Shloka 27  जो पुरुष नष्ट होते हुए इस चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखता हैं, वही यथार्थ देखता हैं ।। २७ ।। He who beholds the imperishable Supreme Lord, existing equally in all perishable beings, realizes the truth. […]

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अध्याय १३ शलोक २६

अध्याय १३ शलोक २६ The Gita – Chapter 13 – Shloka 26 Shloka 26  हे अर्जुन ! यावन्मात्र जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान ।। २६ ।। Whatever is born, unmoving or moving, O Arjuna, know it to be from the union of

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अध्याय १३ शलोक २५

अध्याय १३ शलोक २५ The Gita – Chapter 13 – Shloka 25 Shloka 25  परन्तु इनसे दूसरे, अर्थात् जो मन्द बुद्भि वाले पुरुष हैं ; वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात् तत्व के जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते है और वे श्रवण परायण पुरुष भी मृत्यु रूप संसार

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अध्याय १३ शलोक २४

अध्याय १३ शलोक २४ The Gita – Chapter 13 – Shloka 24 Shloka 24  उस परमात्मा को तो कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्भि से ध्यान के द्वारा ह्रदय में देखते है, अन्य कितने ही ज्ञान योग के द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग के द्वारा देखते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं ।। २४

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अध्याय १३ शलोक २३

अध्याय १३ शलोक २३ The Gita – Chapter 13 – Shloka 23 Shloka 23  इस प्रकार पुरुषों को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है, वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता ।। २३ ।। He who thus knows the Soul and Nature with the

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अध्याय १३ शलोक २२

अध्याय १३ शलोक २२ The Gita – Chapter 13 – Shloka 22 Shloka 22  इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है । वही साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीव रूप से भोक्त्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी

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अध्याय १३ शलोक २१

अध्याय १३ शलोक २१ The Gita – Chapter 13 – Shloka 21 Shloka 21  प्रकृति में स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का सडग् ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण हैं ।। २१ ।। The spirit (soul) residing in nature experiences the

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अध्याय १३ शलोक २०

अध्याय १३ शलोक २० The Gita – Chapter 13 – Shloka 20 Shloka 20  कार्य और करण को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुःखो के भोक्तापन में अर्थात् भोगने में हेतु कहा जाता है ।। २० ।। Both the effect and the cause are generated from nature, and the spirit

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अध्याय १३ शलोक १९

अध्याय १३ शलोक १९ The Gita – Chapter 13 – Shloka 19 Shloka 19  प्रकृति और पुरुष —इन दोनों को ही तू अनादि जान । और राग-द्बेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान ।। १९ ।। You must know that nature and spirit are both without being, and know

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अध्याय १३ शलोक १८

अध्याय १३ शलोक १८ The Gita – Chapter 13 – Shloka 18 Shloka 18  इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप संक्षेप से कहा गया । मेरा भक्त्त इसको तत्व से जानकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है ।। १८ ।। Thus the field, knowledge and the knowable have been briefly

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