श्रीमद भगवद गीता हिन्दी

अध्याय १५ शलोक  ६

अध्याय १५ शलोक  ६ The Gita – Chapter 15 – Shloka 6 Shloka 6  जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौट कर संसार में नहीं आते, उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही ; वही मेरा परम धाम है ।। ६ ।। That […]

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अध्याय १५ शलोक  ५

अध्याय १५ शलोक  ५ The Gita – Chapter 15 – Shloka 5 Shloka 5  जिसका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्ति रूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पुर्ण रूप से नष्ट हो गयी है —–वे सुख-दुःख नामक द्बन्द्बों से विमुक्त्त ज्ञानी

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अध्याय १५ शलोक  ४

अध्याय १५ शलोक  ४ The Gita – Chapter 15 – Shloka 4 Shloka 4  उसके पश्चात् उस परम पद रूप परमेश्वर को भली भाँति खोजना चाहिये, जिसमें गये हुए पुरुष फिर लौट कर संसार में नहीं आते और जिस परमेश्वर से इस पुरातन संसार वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदि पुरुष

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अध्याय १५ शलोक  ३

अध्याय १५ शलोक  ३ The Gita – Chapter 15 – Shloka 3 Shloka 3  इस संसार वृक्ष का स्वरूप जैसा कहा है ; वैसा यहाँ विचार काल में नहीं पाया जाता ; क्योंकि न तो इसका आदि है और न अन्त है तथा न इसकी अच्छी प्रकार से स्थिति ही है इस लिये इस अहंता,

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अध्याय १५ शलोक  २

अध्याय १५ शलोक  २ The Gita – Chapter 15 – Shloka 2 Shloka 2  उस संसार वृक्ष की तीनों गुणों रूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय भोग रूप कोपलों वाली देव, मनुष्य और तिर्यक् आदि योनि रूप शाखाएँ नीचे ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्य लोक में क़र्मो के अनुसार बाँधने वाली

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अध्याय १५ शलोक  १

अध्याय १५ शलोक  १ The Gita – Chapter 15 – Shloka 1 Shloka 1  श्री भगवान् बोले —–आदिपुरुषपरमेश्वर रूप मूल वाले और ब्रह्मा रूप मुख्य शाखा वाले जिस संसार रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी* कहते हैं, तथा वेद जिसक पत्ते कहे गये हैं —-उस संसार रूप वृक्ष को जो पुरुष मूल सहित तत्व से

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अध्याय १४ शलोक २७

अध्याय १४ शलोक  २७ The Gita – Chapter 14 – Shloka 27 Shloka 27  क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखण्ड एक रस आनन्द का आश्रय मैं हूँ ।। २७ ।। I am the abode of Brahman, the immortal, the immutable, the eternal (ever-lasting) dharma and absolute bliss.

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अध्याय १४ शलोक २६

अध्याय १४ शलोक  २६ The Gita – Chapter 14 – Shloka 26 Shloka 26  और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्त्ति योग के द्वारा मुझको निरन्तर भजता है, वह भी इन तीनों गुणों को भली भाँति लाँघकर सच्चिदानन्दधन ब्रह्म को प्राप्त होने के लिये योग्य बन जाता है ।। २६ ।। And he who serves Me with

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अध्याय १४ शलोक २५

अध्याय १४ शलोक  २५ The Gita – Chapter 14 – Shloka 25 Shloka 25  जो मान और अपमान में सम है, मित्र और बैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है ।। २५ ।। He who behaves the same in

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अध्याय १४ शलोक २४

अध्याय १४ शलोक  २४ The Gita – Chapter 14 – Shloka 24 Shloka 24  जो निरन्तर आत्म भाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक सा मानने वाला और अपनी निन्दा स्तुति में भी समान भाव वाला है ।। २४ ।।

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