अध्याय ३

अध्याय ३ शलोक २३

अध्याय ३ शलोक २३ The Gita – Chapter 3 – Shloka 23 Shloka 23  क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूं तो बड़ी हानि हो जाय ; क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं ।। २३ ।। O Arjuna, if I do not perform my […]

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अध्याय ३ शलोक २२

अध्याय ३ शलोक २२ The Gita – Chapter 3 – Shloka 22 Shloka 22  हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ ।। २२ ।। The Blessed Lord spoke: O Arjuna, take Me

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अध्याय ३ शलोक २१

अध्याय ३ शलोक २१ The Gita – Chapter 3 – Shloka 21 Shloka 21  श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं । वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उस के अनुसार बरतने लग जाता है ।। २१ ।। If a great man sets an example

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अध्याय ३ शलोक २०

अध्याय ३ शलोक २० The Gita – Chapter 3 – Shloka 20 Shloka 20  जनकादि ज्ञानी जन भी आसक्त्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सिद्भि को प्राप्त हुए थे । इसलिये तथा लोक संग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है ।। २० ।। Wise

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अध्याय ३ शलोक १९

अध्याय ३ शलोक १९ The Gita – Chapter 3 – Shloka 19 Shloka 19  इसलिये तू निरन्तर आसक्त्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भली भांति करता रह । क्योंकि आसक्त्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ।। १९ ।। Therefore, Arjuna always perform your given duties

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अध्याय ३ शलोक १८

अध्याय ३ शलोक १८ The Gita – Chapter 3 – Shloka 18 Shloka 18  उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता ।।

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अध्याय ३ शलोक १७

अध्याय ३ शलोक १७ The Gita – Chapter 3 – Shloka 17 Shloka 17  परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है ।। १७ ।। He, O Arjuna, who is satisfied and content in himself, and he

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अध्याय ३ शलोक १६

अध्याय ३ शलोक १६ The Gita – Chapter 3 – Shloka 16 Shloka 16  हे पार्थ ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है

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अध्याय ३ शलोक १४,१५

अध्याय ३ शलोक १४,१५ The Gita – Chapter 3 – Shloka 14,15 Shloka 14,15  सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है, और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है । कर्म समुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा

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अध्याय ३ शलोक १३

अध्याय ३ शलोक १३ The Gita – Chapter 3 – Shloka 13 Shloka 13  यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिये ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं  ।। १३ ।। The

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