अध्याय २

अध्याय २ शलोक ५२

अध्याय २ शलोक ५२ The Gita – Chapter 2 – Shloka 52 Shloka 52  जिस काल में तेरी बुद्भि मोह रूप दलदल को भली भांति पार कर जायगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक समबन्धी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा ।। ५२ ।। When […]

अध्याय २ शलोक ५२ Read More »

अध्याय २ शलोक ५१

अध्याय २ शलोक ५१ The Gita – Chapter 2 – Shloka 51 Shloka 51  क्योंकि समबुद्भि से युक्त्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्मरूप बन्धन से मुक्त्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं ।। ५१ ।। Those individuals who have devoted their lives to the practice of

अध्याय २ शलोक ५१ Read More »

अध्याय २ शलोक ५०

अध्याय २ शलोक ५० The Gita – Chapter 2 – Shloka 50 Shloka 50  समबुद्भि युक्त्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात् उनसे मुक्त्त हो जाता है । इससे तू समत्व-रूप योग में लग जा, यह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्म बन्धन से छूटने

अध्याय २ शलोक ५० Read More »

अध्याय २ शलोक ४९

अध्याय २ शलोक ४९ The Gita – Chapter 2 – Shloka 49 Shloka 49  इस समत्वरूप बुद्भि योग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है । इसलिये हे धनञ्जय ! तू समबुद्भि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ़ अर्थात् बुद्भियोग का ही आश्रय ग्रहण कर ; क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त

अध्याय २ शलोक ४९ Read More »

अध्याय २  शलोक ४८

अध्याय २  शलोक ४८   The Gita – Chapter 2 – Shloka 48 Shloka 48  हे धनञ्जय ! तू आसक्त्ति को त्याग कर तथा सिद्भि और असिद्भि में समान बुद्भि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व ही योग कहलाता है ।। ४८ ।। The Divine Lord said: O ARJUNA, perform all

अध्याय २  शलोक ४८ Read More »

अध्याय २ शलोक ४७

अध्याय २ शलोक ४७ The Gita – Chapter 2 – Shloka 47 Shloka 47  तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं । इसलिये तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्त्ति न हो ।। ४७ ।। O ARJUNA, always remember what I

अध्याय २ शलोक ४७ Read More »

अध्याय २ शलोक ४६

अध्याय २ शलोक ४६ The Gita – Chapter 2 – Shloka 46 Shloka 46  सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है ।। ४६ ।। O ARJUNA,

अध्याय २ शलोक ४६ Read More »

अध्याय २ शलोक ४५

अध्याय २ शलोक ४५ The Gita – Chapter 2 – Shloka 45 Shloka 45  हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रति पादन करने वाले हैं ; इसलिये तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्त्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वन्दो से रहित, नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित,

अध्याय २ शलोक ४५ Read More »

अध्याय २ शलोक ४२,४३,४४

अध्याय २ शलोक ४२,४३,४४ The Gita – Chapter 2 – Shloka 42,43,44 Shloka 42,43,44  हे अर्जुन ! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्भि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है —–

अध्याय २ शलोक ४२,४३,४४ Read More »

अध्याय २ शलोक ४१

अध्याय २ शलोक ४१ The Gita – Chapter 2 – Shloka 41 Shloka 41  हे अर्जुन ! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्भि एक ही होती है ; किंतु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्दि निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं ।। ४१ ।। Those with a firm mind, O ARJUNA, are

अध्याय २ शलोक ४१ Read More »

Scroll to Top