अध्याय १८

अध्याय १८ शलोक  ४६

अध्याय १८ शलोक  ४६ The Gita – Chapter 18 – Shloka 46 Shloka 46  जिस परमेश्वर से —— सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्भि को प्राप्त हो जाता है ।। ४६ ।। They all reach perfection […]

अध्याय १८ शलोक  ४६ Read More »

अध्याय १८ शलोक  ४५

अध्याय १८ शलोक  ४५ The Gita – Chapter 18 – Shloka 45 Shloka 45  अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परम सिद्भि को प्राप्त हो जाता है । अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म सिद्भि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन ।।

अध्याय १८ शलोक  ४५ Read More »

अध्याय १८ शलोक  ४४

अध्याय १८ शलोक  ४४ The Gita – Chapter 18 – Shloka 44 Shloka 44  खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार —– ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं । तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है ।। ४४ ।। The Vaisyas and the Sudras are known to provide the services

अध्याय १८ शलोक  ४४ Read More »

अध्याय १८ शलोक  ४३

अध्याय १८ शलोक  ४३ The Gita – Chapter 18 – Shloka 43 Shloka 43  शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव — ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ।। ४३ ।। The valiant work of the Kshastriyas are marked by their heroic minds, power, resourcefulness,

अध्याय १८ शलोक  ४३ Read More »

अध्याय १८ शलोक  ४२

अध्याय १८ शलोक  ४२ The Gita – Chapter 18 – Shloka 42 Shloka 42  अन्त:करण का निग्रह करना, इन्द्रियों का दमन करना ; धर्म पालन के लिये कष्ट सहना ; बाहर-भीतर से शुद्ध रहना ; दूसरों के अपराधों को क्षमा करना ; मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना ; वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक

अध्याय १८ शलोक  ४२ Read More »

अध्याय १८ शलोक  ४१

अध्याय १८ शलोक  ४१ The Gita – Chapter 18 – Shloka 41 Shloka 41  हे परंतप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त्त किये गये हैं ।। ४१ ।। O Arjuna, all the different qualities of work of the various casts in society, namely the Brahmins,

अध्याय १८ शलोक  ४१ Read More »

अध्याय १८ शलोक ४०

अध्याय १८ शलोक  ४० The Gita – Chapter 18 – Shloka 40 Shloka 40  पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी वह ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो ।। ४० ।। Nothing exists, either on the face of

अध्याय १८ शलोक ४० Read More »

अध्याय १८ शलोक ३९

अध्याय १८ शलोक  ३९ The Gita – Chapter 18 – Shloka 39 Shloka 39  जो सुख भोग काल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है —- वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न तामस कहा गया है ।। ३९ ।। That type of pleasure which blinds one to the path leading

अध्याय १८ शलोक ३९ Read More »

अध्याय १८ शलोक ३८

अध्याय १८ शलोक  ३८ The Gita – Chapter 18 – Shloka 38 Shloka 38  जो सुख विजय और इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह पहले —-भोग काल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है ; इसलिये वह सुख राजस कहा गया है ।। ३८ ।। However O

अध्याय १८ शलोक ३८ Read More »

अध्याय १८ शलोक ३६,३७

अध्याय १८ शलोक  ३६,३७ The Gita – Chapter 18 – Shloka 36,37 Shloka 36,37  हे भरत श्रेष्ठ ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन । जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है —-

अध्याय १८ शलोक ३६,३७ Read More »

Scroll to Top