Author name: TheGita Hindi

अध्याय २ शलोक ६६

अध्याय २ शलोक ६६ The Gita – Chapter 2 – Shloka 66 Shloka 66  न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्भि नहीं होती और उस अयुक्त्त मनुष्य के अन्त:करण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्यों को शान्ति नहीं मिलती और शान्ति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है […]

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अध्याय २ शलोक ६५

अध्याय २ शलोक ६५ The Gita – Chapter 2 – Shloka 65 Shloka 65  अन्त:करण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्त वाले कर्मयोगी की बुद्भि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भली भाँति स्थिर हो जाती है ।। ६५ ।। Purity of

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अध्याय २ शलोक ६४

अध्याय २ शलोक ६४ The Gita – Chapter 2 – Shloka 64 Shloka 64  परन्तु अपने अधीन किये हुए अन्त:करण वाला साधक अपने वश में की हुई राग-द्बेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्त:करण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है ।। ६४ ।। But the disciplined wise man who has control

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अध्याय २ शलोक ६३

अध्याय २ शलोक ६३ The Gita – Chapter 2 – Shloka 63 Shloka 63  क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्भि अर्थात् ज्ञान शक्त्ति का नाश हो जाता है और बुद्भि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी

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अध्याय २ शलोक ६२

अध्याय २ शलोक ६२ The Gita – Chapter 2 – Shloka 62 Shloka 62  विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्त्ति हो जाती है, आसक्त्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है ।। ६२ ।। Those who always think about

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अध्याय २ शलोक ६१

अध्याय २ शलोक ६१ The Gita – Chapter 2 – Shloka 61 Shloka 61  इसलिये साधक को चाहिये कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे ; क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्भि स्थिर हो जाती है ।। ६१ ।।

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अध्याय २ शलोक ६०

अध्याय २ शलोक ६० The Gita – Chapter 2 – Shloka 60 Shloka 60  हे अर्जुन ! आसक्त्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्त्न करते हुए बुद्भिमान् पुरुष के मन को भी बलात्कार से हर लेती हैं ।। ६० ।। The Blessed Lord said: Even those who are wise

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अध्याय २ शलोक ५९

अध्याय २ शलोक ५९ The Gita – Chapter 2 – Shloka 59 Shloka 59  इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्त्ति निवृत नहीं होती । इस स्थिर प्रज्ञ पुरुष की तो आसक्त्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत

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अध्याय २ शलोक ५८

अध्याय २ शलोक ५८ The Gita – Chapter 2 – Shloka 58 Shloka 58  और कछुआ सब ओर से अपने अंगो को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्भि स्थिर है ( ऐसा समझना चाहिये ) ।। ५८

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अध्याय २ शलोक ५७

अध्याय २ शलोक ५७ The Gita – Chapter 2 – Shloka 57 Shloka 57  जो पुरुष सर्वत्र स्नेह रहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्बेष करता है, उसकी बुद्भि स्थिर है ।। ५७ ।। A man has a decisive intellect, who is no longer attached

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