अनियंत्रित मन
अध्याय – 6 – श्लोक -5
अपने द्वारा अपना संसार समुद्र से उद्बार करे और अपने को अधोगति में न डाले ; क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है ।। ५ ।।
अध्याय – 6 – श्लोक -6
जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है, और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिये वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है ।। ६ ।।
अध्याय – 6 – श्लोक -26
यह स्थिर न रहने वाला और चञ्चल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोक कर यानी हटा कर इसे बार-बार परमात्मामें ही निरुद्भ करे ।। २६ ।।
अध्याय – 6 – श्लोक -35
श्रीभगवान् बोले —- हे महाबाहो ! नि:संदेह मन चञ्चल और कठिनता से वश में करने वाला है ; हे कुन्ती पुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है ।। ३५ ।।