अधर्मी

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अध्याय – 4 – श्लोक – 36

यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा नि:संदेह सम्पूर्ण पाप समुद्र से भली भाँति तर जायगा ।। ३६ ।।

अध्याय – 4 – श्लोक – 37

क्योंकि हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञान रूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है ।। ३७ ।।

अध्याय – 5 – श्लोक – 10

जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्त्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।। १० ।।

अध्याय – 9 – श्लोक – 30

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त्त होकर मुझको भजता है तो साधु ही मानने योग्य है; क्योकि वह यथार्थ निश्चय वाला है । अर्थात्त् उसने भली भांति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर भजन के समान अन्य कुछ भी नही है ।। ३० ।।

अध्याय – 10 – श्लोक – 3

जो मुझको अजन्मा  अर्थात्त् वास्तव में जन्मरहित, अनादि और लोकों का महान ईश्वर तत्व से जानना है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान् पुरुष सम्पूर्ण पापो से मुक्त्त हो जाता है ।। ३ ।।

अध्याय – 14 – श्लोक – 6

हे निष्पाप ! उन तीनों गुणों में सत्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है, वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अर्थात् उसके अभिमान से बांधता है ।। ६ ।।

अध्याय – 18 – श्लोक – 66

सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझ में त्याग कर तू केवल एक मुझ सर्व शक्त्तिमान् सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त्त कर दूंगा, तू शोक मत कर ।। ६६ ।।

अधर्मी

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