अकेलापन

अकेलापन

अध्याय – 6 – श्लोक -30

जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत* देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता ।। ३०

अध्याय – 9 – श्लोक -29

मै सब भूतो मे सम भाव से व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है; परन्तु जो भक्त्त मुझको प्रेम से भजते है, वे मुझ मे है और मै भी   उनमे प्रत्यक्ष प्रकट हूँ ।। २९ ।।

अध्याय – 13 – श्लोक -16

वह परमात्मा विभाग रहित एक रूप से आकाश के सद्र्श परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त्त सा स्थित प्रतीत होता है ; तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णु रूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्र रूप संहार करने वाला तथा ब्रह्मा रूप से सबको उत्पन्न करने वाला है ।। १६ ।।

अध्याय – 13 – श्लोक -18

इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप संक्षेप से कहा गया । मेरा भक्त्त इसको तत्व से जानकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है ।। १८ ।।

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